50 साल बाद फिर से अर्थशास्त्रियों की नींदें खराब कर रही महंगाई

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– नए साल में आम लोगों की जेब कटनी तय
नई दिल्ली। महंगाई दुनिया भर में चिंताजनक स्तर पर पहुंच गई है और 50 साल बाद फिर से अर्थशास्त्रियों की नींदें खराब कर रही है। अभी तक महंगाई का जो ट्रेंड देखने

को मिला है, उसके हिसाब से ‎विशेषज्ञ मानते हैं कि नया साल आम लोगों की जेबों पर बोझ बढ़ाने वाला साबित होगा। भारत में कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (सीपीआई) पर आधारित खुदरा

महंगाई अभी 4.9 फीसदी पर है। चूंकि यह रिजर्व बैंक को दिए गए लक्ष्य के दायरे में है, इसे बहुत ज्यादा नहीं कहा जा सकता है, लेकिन यह चैन की सांस लेने लायक स्तर भी नहीं है।

दूसरी ओर व्होलसेल प्राइस इंडेक्स (डब्ल्यूपीआई) पर बेस्ड थोक महंगाई पिछले महीने 14.23 फीसदी पर रही है। यह स्तर चिंताजनक है, क्योंकि यह तीन दशकों से भी अधिक समय

का सबसे ऊंचा स्तर है। इससे पहले अप्रैल 1992 में थोक महंगाई 13.8 फीसदी पर रही थी। लगातार आठवें महीने में थोक महंगाई 10 फीसदी से अधिक है।  
अमेरिका में पिछले महीने महंगाई दर 6.8 फीसदी रही, जो करीब 40 साल बाद का सबसे ऊंचा स्तर है। ब्रिटेन में उच्च स्तर 4.2 फीसदी पर है। फ्रांस में भी नवंबर में 3.4 फीसदी के साथ

दशक से अधिक समय के हाई पर रही। पिछले महीने जापान में भी थोक महंगाई 40 साल के हाई पर पहुंच गई. यूरोप की सबसे बड़ी इकोनॉमी जर्मनी (ळमतउंदल) में पिछले महीने

महंगाई 5.2 फीसदी के साथ 29 साल के उच्च स्तर पर रही। भारत में खुदरा महंगाई अभी भले ही रिजर्व बैंक को दिए गए लक्ष्य के दायरे में है, लेकिन यह अपर बैंड के करीब बनी हुई

है। अर्थशास्त्रियों का कहना है ‎कि थोक महंगाई के इस चिंताजनक स्तर के पीछे मुख्य फैक्टर सप्लाई साइड की दिक्कतें हैं। यह कहीं से भी अच्छा संकेत नहीं है, खासकर तब जब हमारे

सामने महामारी की नई लहर का संकट मंड़रा रहा है। उल्लेखनीय है कि खुदरा महंगाई में करीब 46 फीसदी हिस्सा अकेले खाने-पीने के सामानों का होता है। कपड़े व फुटवियर, ईंधन व

बिजली और पान-तंबाकू जैसी चीजों का हिस्सा मिलाकर भी करीब 15 फीसदी ही हो पाता है, जबकि आम लोगों के खर्च में इनका काफी योगदान होता है। इनके अलावा सर्विसेज की

हिस्सेदारी भी सीपीआई में तुलनात्मक कम होती है। वहीं थोक महंगाई में फूड बास्केट का हिस्सा महज 15.30 फीसदी है। थोक महंगाई में सबसे अधिक हिस्सा मैन्यूफैक्चर्ड प्रोडक्ट्स का

है, जो करीब 65 फीसदी है. आम लोगों की जेबें सबसे ज्यादा इन्हीं प्रोडक्ट्स को खरीदने में हल्की होती हैं।

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